एषा तेSभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ।। ३९ ।।
यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है । अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो! हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.39, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.39अर्जुन ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया है – शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम । फलस्वरूप कृष्ण अब उसे बुद्धियोग या कर्मयोग की कार्यविधि बताएँगे जो कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया भक्तियोग है । यह बुद्धियोग अध्याय दस के दसवें श्लोक में वर्णित है जिससे इसे उन भगवान् के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क बताया गया है जो सबके हृदय में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, किन्तु ऐसा सम्पर्क भक्ति के बिना सम्भव नहीं है । अतः जो भगवान् की भक्ति या दिव्य प्रेमाभक्ति में या कृष्णभावनामृत में स्थित होता है, वही भगवान् की विशिष्ट कृपा से बुद्धियोग की यह अवस्था प्राप्त कर पाता है । अतः भगवान् कहते हैं कि जो लोग दिव्य प्रेमवश भक्ति में निरन्तर लगे रहते हैं उन्हें ही वे भक्ति का विशुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं । इस प्रकार भक्त सरलता से उनके चिदानन्दमय धाम में पहुँच सकते हैं ।
इस प्रकार इस श्लोक में वर्णित बुद्धियोग भगवान् कृष्ण की भक्ति है और यहाँ पर उल्लिखित सांख्य शब्द का नास्तिक-कपिल द्वारा प्रतिपादित अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । अतः किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यहाँ पर उल्लिखित सांख्य-योग का अनीश्र्वरवादी सांख्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध है । न ही उस समय उसके दर्शन का कोई प्रभाव था, और न कृष्ण ने ऐसी ईश्र्वरविहीन दार्शनिक कल्पना का उल्लेख करने की चिन्ता की । वास्तविक सांख्य-दर्शन का वर्णन भगवान् कपिल द्वारा श्रीमद्भागवत में हुआ है, किन्तु वर्तमान प्रकरणों में उस सांख्य से भी कोई सरोकार नहीं है । यहाँ सांख्य का अर्थ है शरीर तथा आत्मा का वैश्लेषिक अध्ययन । भगवान् कृष्ण ने आत्मा का वैश्लेषिक वर्णन अर्जुन को बुद्धियोग या कर्मयोग तक लाने के लिए किया । अतः भगवान् कृष्ण का सांख्य तथा भागवत में भगवान् कपिल द्वारा वर्णित सांख्य एक ही हैं । ये दोनों भक्तियोग हैं । अतः भगवान् कृष्ण ने कहा है कि केवल अल्पज्ञ ही सांख्य-योग तथा भक्तियोग में भेदभाव मानते हैं (सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः) ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.39, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.39
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