सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८ ।।
तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो । ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.38देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मा यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहत्य कृतम् ।
“जिसने अन्य समस्त कार्यों को त्याग कर मुकुन्द श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो किसी का ऋणी है और न किसी का कृतज्ञ – चाहे वे देवता, साधु, सामान्यजन, अथवा परिजन, मानवजाति या उसके पितर ही क्यों न हों ।” इस श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को अप्रत्यक्ष रूप से इसी का संकेत किया है । इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में और भी स्पष्टता से की जायेगी ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.38
पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.38 | आगे जाएँ |