गीता सार-राधा कृष्ण

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.15

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.15

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोSमृतत्वाय कल्पते।। १५।।

यम् – जिस; हि – निश्चित रूप से; – कभी नहीं; व्यथ्यन्ति – विचलित नहीं करते; एते – ये सब; पुरुषम् – मनुष्य को; पुरुष-ऋषभ – हे पुरुष-श्रेष्ठ; सम – अपरिवर्तनीय; दुःख – दुख में; सूखम् – तथा सुख में; धीरम् – धीर पुरुष; सः – वह; अमृतत्वाय – मुक्ति के लिए; कल्पते – योग्य है।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.15, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.15

हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है।

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.15, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.15
जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है और सुख तथा दुख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चय ही मुक्ति के योग्य है। वर्णाश्रम-धर्म में चौथी अवस्था अर्थात् संन्यास आश्रम कष्टसाध्य अवस्था है। किन्तु जो अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हुए भी संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है। ये कठिनाइयाँ पारिवारिक सम्बन्ध-विच्छेद करने तथा पत्नी और सन्तान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती हैं। किन्तु यदि कोई इन कठिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्म-साक्षात्कार का पथ निष्कंटक हो जाता है। अतः अर्जुन को क्षत्रिय-धर्म निर्वाह में दृढ़ रहने के लिए कहा जा रहा है, भले ही स्वजनों या अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना ही दुष्कर क्यों न हो। भगवान् चैतन्य ने चौबीस वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था यद्यपि उन पर आश्रित उनकी तरुण पत्नी तथा वृद्धा माँ की देखभाल करने वाला अन्य कोई न था। तो भी उच्चादर्श के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपने कर्तव्यपालन में स्थिर बने रहे। भवबन्धन से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.15, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.15
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