यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोSमृतत्वाय कल्पते।। १५।।
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.15, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.15पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.15 | आगे जाएँ |