गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्र्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। ६० ।।

यततः – प्रयत्न करते हुए; हि – निश्चय ही; अपि – के बावजूद; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; पुरुषस्य – मनुष्य की; विपश्र्चितः – विवेक से युक्त; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; प्रमाथीनि – उत्तेजित; हरन्ति – फेंकती हैं; प्रसभम् – बल से; मनः – मन को ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.60

हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है ।

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.60
अनेक विद्वान, ऋषि, दार्शनिक तथा अध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु उनमें से बड़े से बड़ा भी कभी-कभी विचलित मन के कारण इन्द्रियभोग का लक्ष्य बन जाता है । यहाँ तक कि विश्र्वामित्र जैसे महर्षि तथा पूर्ण योगी को भी मेनका के साथ विषयभोग में प्रवृत्त होना पड़ा, यद्यपि वे इन्द्रियनिग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे । विश्र्व इतिहास में इसी तरह के अनेक दृष्टान्त हैं । अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हुए बिना मन तथा इन्द्रियों को वश में कर सकना अत्यन्त कठिन है । मन को कृष्ण में लगाये बिना मनुष्य ऐसे भौतिक कार्यों को बन्द नहीं कर सकता । परम साधु तथा भक्त यामुनाचार्य में एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं –

यदवधि मम चेतः कृष्णपदारविन्दे
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तुमासीत् ।
तदविधि बात नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सुष्ठु निष्ठीवनं च ।।

“जब से मेरा मन भगवान् कृष्ण के चरणाविन्दों की सेवा में लग गया है और जब से मैं नित्य नव दिव्यरस का अनुभव करता रहता हूँ, तब से स्त्री-प्रसंग का विचार आते ही मेरा मन उधर से फिर जाता है और मैं ऐसे विचार पर थू-थू करता हूँ ।” कृष्णभावनामृत इतनी दिव्य सुन्दर वस्तु है कि इसके प्रभाव से भौतिक भोग स्वतः नीरस हो जाता है । यह वैसा ही है जैसे कोई भूखा मनुष्य प्रचुर मात्रा में पुष्टिदायक भोजन करके भूख मिटा ले । महाराज अम्बरीष भी परम योगी दुर्वासा मुनि पर इसीलिए विजय पा सके क्योंकि उनका मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता था (स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने) ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.60
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