यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्र्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। ६० ।।
हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.60यदवधि मम चेतः कृष्णपदारविन्दे
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तुमासीत् ।
तदविधि बात नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सुष्ठु निष्ठीवनं च ।।
“जब से मेरा मन भगवान् कृष्ण के चरणाविन्दों की सेवा में लग गया है और जब से मैं नित्य नव दिव्यरस का अनुभव करता रहता हूँ, तब से स्त्री-प्रसंग का विचार आते ही मेरा मन उधर से फिर जाता है और मैं ऐसे विचार पर थू-थू करता हूँ ।” कृष्णभावनामृत इतनी दिव्य सुन्दर वस्तु है कि इसके प्रभाव से भौतिक भोग स्वतः नीरस हो जाता है । यह वैसा ही है जैसे कोई भूखा मनुष्य प्रचुर मात्रा में पुष्टिदायक भोजन करके भूख मिटा ले । महाराज अम्बरीष भी परम योगी दुर्वासा मुनि पर इसीलिए विजय पा सके क्योंकि उनका मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता था (स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने) ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.60, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.60
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