गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.58

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.58

यदा संहरते चायं कुर्मोSङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियानीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ५८ ।।

यदा – जब; संहरते – समेत लेता है; – भी; अयम् – यह; कूर्मः – कछुवा; अ गानि – अंग; इव – सदृश; सर्वशः – एकसाथ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; इन्द्रिय-अर्थेभ्यः – इन्द्रियविषयों से; तस्य – उसकी; प्रज्ञा – चेतना; प्रतिष्ठिता – स्थिर ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.58, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.58

जिस प्रकार कछुवा अपने अंगो को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खीँच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है ।

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.58, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.58
किसी योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वश में कर सके, किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं । यह है उत्तर इस प्रश्न का कि योगी किस प्रकार स्थित जोटा है । इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है । वे अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं । योगी या भक्त को इस सर्पों को वश में करने के लिए, एक सपेरे की भाँति अत्यन्त प्रबल होना चाहिए । वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता । शास्त्रों में अनेक आदेश हैं, उनमें से कुछ ‘करो’ तथा कुछ ‘न करो’ से सम्बद्ध हैं । जब तक कोई इन, ‘करो या न करो’ का पालन नहीं कर पाटा और इन्द्रियभोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असम्भव है । यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ उदाहरण कछुवे का है । वह किसी भी समय अपने अंग समेत लेता है और पुनः विशिष्ट उद्देश्यों से उन्हें प्रकट कर सकता है । इसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रियाँ भी केवल भगवान् की विशिष्ट सेवाओं के लिए काम आती हैं अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है । अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इन्द्रियों को आत्मतुष्टि में न करके भगवान् की सेवा में लगाये । अपनी इन्द्रियों को सदैव भगवान् की सेवा में लगाये रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टान्त के अनुरूप है, जो अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.58, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.58
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