श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। ५५ ।।
श्रीभगवान् ने कहा – हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) कहा जा
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.55, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.55पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.55 | आगे जाएँ |