गीता सार

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८ ।।

सुख – सुख; दुःखे – तथा दुख में; समे – समभाव से; कृत्वा – करके; लाभ-अलाभौ – लाभ तथा हानि दोनों; जय-अजयौ – विजय तथा पराजय दोनों; ततः – तत्पश्चात्; युद्धाय – युद्ध करने के लिए; युज्यस्व – लगो (लड़ो); – कभी नहीं; एवम् – इस तरह; पापम् – पाप; अवाप्स्यसि – प्राप्त करोगे ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.38

तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो । ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा ।

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.38
अब भगवान् कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि अर्जुन को युद्ध के लिए युद्ध करना चाहिए क्योंकि यह उनकी इच्छा है । कृष्णभावनामृत के कार्यों में सुख या दुख, हानि या लाभ, जय या पराजय को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता । दिव्य चेतना तो यही होगी कि हर कार्य कृष्ण के निमित्त किया जाय, अतः भौतिक कार्यों का कोई बन्धन (फल) महीन होता । जो कोई सतोगुण या रजोगुण के अधीन होकर अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है उसे अच्छे या बुरे फल प्राप्त होते हैं किन्तु जो कृष्णभावनामृत के कार्यों में अपने आपको समर्पित कर देता है वह सामान्य कर्म करने वाले के समान किसी का कृतज्ञ या ऋणी नहीं होता । भागवत में (११.५.४१) कहा गया है –

देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मा यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहत्य कृतम् ।

“जिसने अन्य समस्त कार्यों को त्याग कर मुकुन्द श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो किसी का ऋणी है और न किसी का कृतज्ञ – चाहे वे देवता, साधु, सामान्यजन, अथवा परिजन, मानवजाति या उसके पितर ही क्यों न हों ।” इस श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को अप्रत्यक्ष रूप से इसी का संकेत किया है । इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में और भी स्पष्टता से की जायेगी ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.38, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.38
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