यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।। ३२ ।।
हे पार्थ! वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.32, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.32क्षत्रियों हि प्रजारक्षन् शस्त्रपाणिः प्रदण्डयन् । निर्जित्य परसैन्यादि क्षितिं धर्मेण पाल्येत् ।।
“क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे । इसीलिए उसे शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है । अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए ।”
यदि सभी पक्षों पर विचार करें तो अर्जुन को युद्ध से विमुख होने का कोई कारण नहीं था । यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जायेगा जिसके द्वार उसके लिए खुले हुए हैं । युद्ध करने के लिए उसे दोनों ही तरह लाभ होगा ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.32, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.32
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