अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ।। २६ ।।
किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण) सदा जन्म लेता है तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.26, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.26यदि अर्जुन को आत्मा का अस्तित्व में विश्र्वास नहीं था, जैसा कि वैभाषिक दर्शन में होता है तो भी उसके शोक करने का कोई कारण न था । कोई भी मानव थोड़े से रसायनों की क्षति के लिए शोक नहीं करता तथा अपना कर्तव्यपालन नहीं त्याग देता है । दूसरी ओर, आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए न जाने कितने टन रसायन फूँक देते हैं । वैभाषिक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है । अतः प्रत्येक दशा में चाहे अर्जुन इस वैदिक मान्यता को स्वीकार करता कि अणु-आत्मा का अस्तित्व है, या कि वह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता , उसके लिए शोक करने का कोई कारण न था । इस सिद्धान्त के अनुसार चूँकि पदार्थ से प्रत्येक क्षण असंख्य जीव उत्पन्न होते है और नष्ट होते रहते हैं, अतः ऐसी घटनाओं के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है । यदि आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता तो अर्जुन को अपने पितामह तथा गुरु के वध करने के पापफलों से डरने का कोई कारण न था । किन्तु साथ ही कृष्ण ने अर्जुन को व्यंगपूर्वक महाबाहु कह कर सम्बोधित किया क्योंकि उसे वैभाषिक सिद्धान्त स्वीकार नहीं था जो वैदिक ज्ञान के प्रतिकूल है । क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से था और वैदिक सिद्धान्तों का पालन करते रहना ही उसके लिए शोभनीय था ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.26, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.26
पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.26 | आगे जाएँ |