geeta-saar-Radha-krishna (2)

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.23

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.23

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। २३ ।।

– कभी नहीं; एनम् – इस आत्मा को; छिन्दन्ति – खण्ड-खण्ड कर सकते हैं; शस्त्राणि – हथियार; – कभी नहीं; एनम् – इस आत्मा को; दहति – जला सकता है; पावकः – अग्नि; – कभी नहीं; – भी; एनम् – इस आत्मा को; क्लेदयन्ति – भिगो सकता है; आपः – जल; – कभी नहीं; शोषयति – सुखा सकता है; मारुतः – वायु ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.23, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.23

यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है ।

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.23, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.23
सारे हथियार – तलवार, आग्नेयास्त्र, वर्षा के अस्त्र, चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी, जल, वायु, आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे । यहाँ तक कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है, किन्तु पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्त्वों से बने हुए हथियार होते थे । आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था, जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात हैं । आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है । जो भी हो, आत्मा को न तो कभी खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न किन्हीं वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया जा सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो ।

मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् माया की शक्ति से आवृत हो गया । न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना संभव था, प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं । चूँकि वे सनातन अणु-आत्मा हैं, अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृत्ति स्वाभाविक है और इस तरह वे भगवान् की संगति से पृथक् हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं, यद्यपि इन दोनों के गुण समान होते हैं । वराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है । भगवद्गीता के अनुसार भी वे शाश्र्वत रूप से ऐसे ही हैं । अतः मोह से मुक्त होकर भी जीव पृथक् अस्तित्व रखता है, जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये उपदेशों से स्पष्ट है । अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया, किन्तु कभी भी कृष्ण से एकाकार नहीं हुआ ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.23, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.23
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