नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |
उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः || १६ ||
तत्त्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत् (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है, किन्तु सत् (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है | उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है |
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.16, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.16यहीं से भगवान् द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवों को उपदेश देने का शुभारम्भ होती है | अज्ञान को हटाने के लिए अराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्र्वत सम्बन्ध स्थापित करना होता है और फिर अंश-रूप जीवों तथा श्रीभगवान् के अन्तर को समझना होता है | कोई भी व्यक्ति आत्मा के अध्ययन द्वारा परमेश्र्वर के स्वभाव को समझ सकता है – आत्मा तथा परमात्मा का अन्तर अंश तथा पूर्ण के अन्तर के रूप में है | वेदान्त-सूत्र तथा श्रीमद्भागवत में परमेश्र्वर को समस्त उद्भवों (प्रकाश) का मूल माना गया है | ऐसे अद्भओं का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक-क्रमों द्वारा किया जाता है | जीव का सम्बन्ध परा प्रकृति से है, जैसा कि सातवें अध्याय से स्पष्ट होगा | यद्यपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण | अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्र्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है | अज्ञानावस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असम्भव है | अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवों को प्रवृद्ध करने हेतु भगवान् भगवद्गीता का उपदेश देते हैं |गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.16, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.16
पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.16 | आगे जाएँ |