गीता सार-राधा कृष्ण

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.12

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.12

नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव नभविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। १२।।

– नहीं; तु – लेकिन; एव – निश्चय ही; अहम् – मैं; जातु – किसी काल में; – नहीं; आसम् – था; – नहीं; त्वम् – तुम; – नहीं; इमे – ये सब; जन-अधिपाः – राजागण; – कभी नहीं; – भी; एव – निश्चय ही; – नहीं; भविष्यामः – रहेंगे; सर्वे वयम् – हम सब; अतः परम् – इससे आगे।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.12, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.12

ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे।

गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.12, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.12
वेदों में, कठोपनिषद् में और श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में भी कहा गया है कि जो श्रीभगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी-अपनी परिस्थितियों में पालक हैं, वही भगवान् अंश रूप में हर जीव के हृदय में वास कर रहे हैं। केवल साधु पुरुष, जो एक ही ईश्र्वर को भीतर-बाहर देख सकते हैं, पूर्ण और शाश्र्वत शान्ति प्राप्त कर पाते हैं।

नित्यो नित्यानां चेतनश्र्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तमात्मस्थं येSनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्र्वती नेतरेषाम्।।
(कठोपनिषद् २.२.१३)

जो वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्र्व के उन पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान होने का दावा तो करते हैं किन्तु जिनकी ज्ञानराशि न्यून है। भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि वे स्वयं, अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्र्वत प्राणी हैं और इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान् ही एकमात्र उनके पालक हैं। भगवान् परम पुरुष हैं तथा भगवान् का चिर संगी अर्जुन एवं वहाँ पर एकत्र सारे राजागण शाश्र्वत पुरुष हैं। ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के रूप अलग-अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि वे शाश्र्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे। उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्बोध रूप से बना रहेगा। अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है।

ये मायावादी सिद्धान्त कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक् होकर निराकार ब्रह्म में लीन हो जायेगा और अपना अस्तित्व खो देगा यहाँ परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता। न ही इस सिद्धान्त का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिन्तन करते हैं। यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में भी अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती हैं। कृष्ण का यह कथन प्रमाणिक है क्योंकि कृष्ण मायावश्य नहीं हैं। यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए! मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व अध्यात्मिक न होकर भौतिक है। यदि हम इस तर्क को, कि अस्तित्व भौतिक होता है, स्वीकार कर भी लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस प्रकार पहचानेगा? कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं; यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप में माना जाता है तो प्रमाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगी। एक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों के चार अवगुणों के कारण श्रवण करने योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है। गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है। कोई भी संसारी ग्रंथ गीता की तुलना नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता गीता की सारी महत्ता जाती रहती है। मायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मबुद्धि की निन्दा की गई है। एक बार जोवों की देहात्मबुद्धि की निन्दा करने के बाद यह कैसे सम्भव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते? अतः यह अस्तित्व अध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है। गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह अध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है। जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती। अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है। पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता। इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद को केवल भक्त ही समझ सकते हैं, अन्य कोई नहीं, जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है। न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हैं जो भगवान् के अस्तित्व का ही विरोध करते हैं। अतः मयावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है। भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गई गीता की व्याख्याओं को पढने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई ऐसे मायावादी दर्शन को ग्रहण करता है वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है। यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्र्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चूका है।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.12, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.12
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