यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।। ५२ ।।
जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.52, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.52सन्ध्यावन्दन भद्रमस्तु भवतो भोः स्नान तुभ्यं नमो ।
भो देवाः पितरश्र्च तर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम् ।।
यत्र क्कापि निषद्य यादव कुलो त्तमस्य कंस दविषः ।
स्मारं स्मारमद्यं हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे ।।
“हे मेरी त्रिकाल प्रार्थनाओ, तुम्हारी जय हो । हे स्नान, तुम्हें प्रणाम है । हे देवपितृगण, अब मैं आप लोगों के लिए तर्पण करने में असमर्थ हूँ । अब तो जहाँ भी बैठता हूँ, यादव कुलवंशी, कंस के हंता श्रीकृष्ण का ही स्मरण करता हूँ और इस तरह मैं अपने पापमय बन्धन से मुक्त हो सकता हूँ । मैं सोचता हूँ कि यही मेरे लिए पर्याप्त है ।”
वैदिक रस्में तथा अनुष्ठान यथा त्रिकाल संध्या, प्रातःकालीन स्नान, पितृ-तर्पण आदि नवदीक्षितों के लिए अनिवार्य हंत । किन्तु जब कोई पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो और कृष्ण की दिव्य प्रेमभक्ति में लगा हो, तो वह इन विधि-विधानों के प्रति उदासीन हो जाता है, क्योंकि उसे पहले ही सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है । यदि कोई परमेश्र्वर कृष्ण की सेवा करके ज्ञान को प्राप्त होता है तो उसे शास्त्रों में वर्णित विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ तथा यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती । इसी प्रकार जो यह नहीं समझता कि वेदों का उद्देश्य कृष्ण तक पहुँचना है और अपने आपको अनुष्ठानादि में व्यस्त रखता है, वह केवल अपना समय नष्ट करता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शब्द-ब्रह्म की सीमा या वेदों तथा उपनिषदों की परिधि को भी लाँघ जाते हैं ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.52, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.52
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