कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि ।। ४७ ।।
तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो । तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.47, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.47जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते हैं – यथा नित्यकर्म, आपात्कालीन कर्म तथा इच्छित कर्म । नित्यकर्म फल की इच्छा के बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगण में रहकर किये जाते हैं । फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं, अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं । हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है, किन्तु उसे फल से अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए । ऐसे निष्काम कर्म निस्सन्देह मुक्ति पथ की ओर ले जाने वाले हैं ।
अतएव भगवान् ने अर्जुन को फलासक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म) के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी । उसका युद्ध-विमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू है । ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती । आसक्ति चाहे स्वीकारत्मक हो या निषेधात्मक, वह बन्धन का कारण है । अकर्म पापमय है । अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.47, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.47
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