श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्र्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। ५३ ।।
जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाय, तब तुम्हें दिव्य चेतना प्राप्त हो जायेगी ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.53, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.53पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.53 | आगे जाएँ |