योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। ४८ ।।
हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो । ऐसी समता योग कहलाती है ।
गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.48, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.48अर्जुन क्षत्रिय है, अतः वह वर्णाश्रम-धर्म का अनुयायी है । विष्णु-पुराण में कहा गया है कि वर्णाश्रम-धर्म का एकमात्र उद्देश्य विष्णु को प्रसन्न करना है । सांसारिक नियम है कि लोग पहले अपनी तुष्टि करते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने को तुष्ट न करके कृष्ण को तुष्ट करना है । अतः कृष्ण को तुष्ट किये बिना कोई वर्णाश्रम-धर्म का पालन कर भी नहीं सकता । यहाँ पर परोक्ष रूप से अर्जुन को कृष्ण द्वारा बताई गई विधि के अनुसार कर्म करने का आदेश है ।गीता सार-श्रीमद् भगवद्गीता-अध्याय-2.48, Geeta Saar-Srimad Bhagavad Gita-2.48
पीछे जाएँ | श्रीमद् भगवद्गीता – गीता सार – अध्याय – 2.48 | आगे जाएँ |